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Showing posts from April, 2020

Kubera Temple, God of Wealth, Omkareshwar-धन के देवता कुबेर मंदिर,ओंकारेश्वर

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ओंकारेश्वर में स्थित कुबेर भंडारी का मंदिर राज्य का दूसरा और देश का छठा मंदिर है। राज्य में पहला मंदिर मंदसौर में स्थित है जबकि दूसरा खंडवा जिले में ओंकारेश्वर तीर्थ नगरी में स्थित है, जबकि पुणे महाराष्ट्र, अल्मोड़ा उत्तराखंड, करनाली बड़ौदा, रत्नमंगलम चेन्नई देश में स्थित हैं। इन सभी मंदिरों का देश के तीर्थ स्थानों में अपना स्थान है। ओंकारेश्वर की इन पौराणिक मान्यताओं के कारण तीर्थनगरी का महत्व काफी बढ़ जाता है। इन्हीं मान्यताओं में से एक है कुबेर भंडारी का मंदिर। वैसे, कुबेर को शिव और धन के भगवान के साथ-साथ दुनिया का रक्षक भी कहा जाता है, इसलिए इस मंदिर का महत्व बहुत बढ़ जाता है। मान्यता के अनुसार, इस मंदिर में धनतेरस के दर्शन मात्र से देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है। ऐसे में श्रद्धालु इस मंदिर में दर्शन करने आते रहते हैं। जब भक्त ओंकारेश्वर आते हैं, तो वे निश्चित रूप से दर्शन के लिए वहां पहुंचते हैं। जहां कुबेर भंडारी का मंदिर है ओंकारेश्वर बांध बनने से पहले नर्मदा और कावेरी के संगम पर कुबेर भंडारी का मंदिर स्थापित किया गया था, लेकिन जब बांध बनाया गया, तो सरकार ने इस मंदिर के लि

नरक चतुर्दशी कथा​ (काली चौदस)-Narak Chaturdashi story (Kali Chaudas)

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नरक चतुर्दशी कथा कार्तिक महीने में कृष्ण पक्ष की चतुदर्शी को रूप चौदस, नरक चतुर्दशी कहते हैं। बंगाल में यह दिन मां काली के जन्म दिन के रूप में काली चौदस के तौर पर मनाते हैं। इसे छोटी दीपावली भी कहते हैं। इस दिन स्नानादि से निपट कर यमराज का तर्पण करके तीन अंजलि जल अर्पित किया जाता है। संध्या के समय दीपक जलाए जाते हैं। चौदस और अमावस्या तीनों दिन दीपक जलाने से यम यातना से मुक्ति मिलती है तथा लक्ष्मी जी का साथ बना रहता है। नरक चौदस की कहानी :- प्राचीन समय की बात है। रन्तिदेव नामक का एक राजा था। वह पहले जन्म में बहुत धर्मात्मा एवं दानी था। दूर-दूर तक उसकी बहुत ही ख्याति थी। अपने पूर्व जन्म के कर्मो की वजह से वह इस जन्म में भी अपार दान आदि देकर बहुत से सत्कार्य किए। दान धर्म करके सबका भला करता था। जरुरत मन्दो को कभी भी निराश नहीं होने देता था। कुछ समय पश्चात राजा बूढ़ा हो गया, उनके अंत समय में यमराज के दूत लेने आए। राजा को देखकर डराकर घूरते हुए कहा राजन ! राजन तुम्हारा समय समाप्त हो गया अब तुम नरक में चलो। तुम्हे वही चलना पड़ेगा। राजा ने सोचा भी नहीं था कि उसे नरक जाना पड़ेगा।  राजा ने घबराकर य

The legend of the end of Tripurasura.-त्रिपुरासुर के अंत की कथा।

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हर कालचक्र में भगवान शिव को त्रिपुरासुर का अंत करना होता है। तीन असुर भगवान शिव की भक्ति करते थे, अतः भगवान शिव उनकी रक्षा करते थे। उन्होंने भगवान द्वारा रक्षा का वर प्राप्त कर लिया, और उन्हें बताया गया की वे रेगिस्तानी (उर्वर कृषि योग्य भूमि विहीन पहाड़ियों ) पर रहें और जब उनका पाप बढ़ेगा तो , कलियुग में जब असत्य सत्य पर भारी पड़ेगा, तो कलियुग शुरू होने पर कलियुग के पहले चरण में ही भगवान स्वयं उनका विनाश करने आएंगे। लेकिन लोगों की भक्ति सच्ची नहीं थी , वे बुरे काम करके शिव की पूजा कर लेते तो भोलेनाथ उनका विनाश नहीं कर पाते। ये सृष्टि के नियम के विपरीत था, ये धर्म का दुरूपयोग था। लेकिन महादेव अपने शरणागत भक्तों को कभी मार नहीं सकते थे, तब भगवान विष्णु ने मार्ग निकाला, और वही किया जो उन्हें हर कल चक्र में करना पड़ता है, उन्होंने एक मायावी सा मन को बातों से वश में कर लेने वाला पुरुष का निर्माण किया और अवतार लिया, उन्होंने महारानी माया के गर्भ में अत्यंत विशेष मुहूर्त में जन्म लेकर, पटना देश में सन्यासी बनकर आये, वट वृक्ष के नीचे तप किया और बोध प्राप्त करने के कारण लोग उन्हें बुद्ध नाम से जान

​Char-Yuga and their characteristics-चार-युग और उनकी विशेषताएं

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'युग' शब्द का अर्थ होता है एक निर्धारित संख्या के वर्षों की काल-अवधि। जैसे कलियुग, द्वापरयुग, सत्ययुग, त्रेतायुग आदि । यहाँ हम चारों युगों का वर्णन करेंगें। युग वर्णन से तात्पर्य है कि उस युग में किस प्रकार से व्यक्ति का जीवन, आयु, ऊँचाई, एवं उनमें होने वाले अवतारों के बारे में विस्तार से परिचय देना। प्रत्येक युग के वर्ष प्रमाण और उनकी विस्तृत जानकारी कुछ इस तरह है । सत्ययुग 〰〰〰 यह प्रथम युग है इस युग की विशेषताएं इस प्रकार है - इस युग की पूर्ण आयु अर्थात् कालावधि – 17,28,000 वर्ष होती है । इस युग में मनुष्य की आयु – 1,00,000 वर्ष होती है । मनुष्य की लम्बाई – 32 फिट (लगभग) [21 हाथ] सत्ययुग का तीर्थ – पुष्कर है । इस युग में पाप की मात्र – 0 विश्वा अर्थात् (0%) होती है । इस युग में पुण्य की मात्रा – 20 विश्वा अर्थात् (100%) होती है । इस युग के अवतार – मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह (सभी अमानवीय अवतार हुए) है । अवतार होने का कारण – शंखासुर का वध एंव वेदों का उद्धार, पृथ्वी का भार हरण, हरिण्याक्ष दैत्य का वध, हिरण्यकश्यपु का वध एवं प्रह्लाद को सुख देने के लिए। इस युग की मुद्रा – रत्न

Sri Vindhyachal Dham, Shaktipeeth-श्री विंध्याचल धाम, शक्तिपीठ

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श्री विन्ध्याचल धाम ।​ देवी भक्तों का विश्व प्रसिद्ध धाम है उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में विन्ध्य पहाड़ियों पर स्थित आदि शक्ति श्री दुर्गा जी का मन्दिर, जिसे दुनिया विन्ध्याचल मंदिर के नाम से पुकारती है ! यह आदि शक्ति माता विंध्यवासिनी का धाम अनादी काल से ही साधकों के भी लिए प्रिय सिद्धपीठ रहा है। विंध्याचल मंदिर पौराणिक नगरी काशी से लगभग 50 किलोमीटर दूर स्थित है। देश के 51 शक्तिपीठों में से एक है विंध्याचल। सबसे खास बात यह है कि यहां तीन किलोमीटर के दायरे में तीन प्रमुख देवियां विराजमान हैं। ऐसा माना जाता है कि तीनों देवियों के दर्शन किए बिना विंध्याचल की यात्रा अधूरी मानी जाती है। तीनों के केन्द्र में हैं मां विंध्यवासिनी। यहां निकट ही कालीखोह पहाड़ी पर महाकाली तथा अष्टभुजा पहाड़ी पर अष्टभुजी देवी विराजमान हैं। माता के दरबार में तंत्र-मंत्र के साधक भी आकर साधना में लीन होकर माता रानी की कृपा पाते हैं। नवरात्र में प्रतिदिन विश्व के कोने-कोने से भक्तों का तांता जगत जननी के दरबार में लगता है। त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल क्षेत्र का अस्तित्व सृष्टि से पूर्व का है तथा प्रलय के बाद

Vinayaka templ, Kanipakam in Andhra Pradesh-आंध्र प्रदेश में विनायक मंदिर, कानिपकम।

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इस मंदिर में लगातार बढ़ रहा है श्री गणेश की मूर्ति का आकार स्वर्गलोक में बैठे ईश्वर समय-समय पर धरती पर अवतार लेते आए हैं, लेकिन कई बार साक्षात रूप में नहीं बल्कि, प्रतीकात्मक रूप में ही अपने भक्तों को अपने होने का एहसास करवाते रहे हैं। भारत के उन्हीं चमत्कारी मंदिरों में से एक आंध्र प्रदेश के कनिपकम में स्थित विनायक मंदिर हैं। यह मंदिर भगवान गणेश को समर्पित है, जिसका निर्माण चोल वंश ने 11 शताब्दी में करवाया था इसके बाद विजयनगर के शासकों ने वर्ष 1336 में इसका विस्तार किया। इतिहास मंदिर की स्थापना से जुड़ी एक बहुत ही रोचक कथा प्रचलित है जो ईश्वर के होने का एक बड़ा प्रमाण देती है। एक बार एक गांव में तीन विकलांग भाई रहते थे। उनमें से एक बधिर, दूसरा मूक और तीसरा दृष्टिहीन था। उनके पास भूमि का एक बहुत ही छोटा हिस्सा था, वह उस पर खेती कर, अपना गुजारा करते थे। जिस कुएं से पानी निकालकर वे खेती किया करते, एक बार उस कुएं का पानी सूख गया। इसलिए वे खेत में पानी नहीं डाल पा रहे थे। ऐसे हालातों में तीनों में से एक भाई कुएं को और गहरा खोदने के लिए उसमें उतर गया। थोड़ी सी ही खुदाई करने के बाद उसे कुएं के

Why only peacock feathers on Krishna's crown?-कृष्णा के मुकुट पर सिर्फ मोर पंख ही क्यों​ ?

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कृष्णा के मुकुट पर सिर्फ मोर पंख ही क्यों​ ? कृष्णा के मुखुट पर मोरपंख होने के बहुत सारे कारण विद्वान् व्यक्ति देते आये है जिनमे से कुछ इस तरह है | १) मोर एकमात्र ऐसा प्राणी है जो सम्पूर्ण जीवन में ब्रह्मचर्य का पालन करता है | मोरनी का गर्भ भी मोर के आंसुओ को पीकर ही धारण होता है | इत: इतने पवित्र पक्षी के पंख भगवान खुद अपने सर पर सजाते है | २) भगवान कृष्णा मित्र और शत्रु के लिए समान भावना रखते है इसके पीछे भी मोरपंख का उद्दारण देखकर हम यह कह सकते है | कृष्णा के भाई थे शेषनाग के अवतार बलराम और नागो के दुश्मन होते है मोर | अत: मोरपंख सर पर लगाके कृष्णा का यह सभी को सन्देश है की वो सबके लिए समभाव रखते है | ३) राधा भी बनी मोरमुकुट का कारण : कहते है की राधा जी के महलो में बहुत सारे मोर हुआ करते थे | जब कृष्णा की बांसुरी पर राधा नाचती थी तब उनके साथ वो मोर भी नाचा करते थे | तब एक दिन किसी मोर का पंख नृत्य करते करते गिर गया | कृष्णा ने उसे झट से उताकर अपने सिर पर सज्जा लिया | उनके लिए यह राधा के प्रेम की धरोहर ही थी | ४) मोरपंख में सभी रंग है गहरे भी और हलके भी | कृष्णा अपने भक्तो को ऐसे रंग

Why does Narmada flow in the opposite direction?-नर्मदा क्यों बहती ही उल्टी दिशा में?​

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नर्मदा नदी को जीवन दायिनी कहा जाता है, यह न केवल एक नदी है बल्कि करोड़ों लोगों की आस्था का केन्द्र भी है। इससे जुड़ी कई रोचक कथाएं हैं। एक कथा के अनुसार नर्मदा को रेवा नदी और शोणभद्र को सोनभद्र के नाम से जाना गया है। राजकुमारी नर्मदा राजा मेखल की पुत्री थी। राजा मेखल ने अपनी अत्यंत रूपसी पुत्री के लिए यह तय किया कि जो राजकुमार गुलबकावली के दुर्लभ पुष्प उनकी पुत्री के लिए लाएगा वे अपनी पुत्री का विवाह उसी के साथ संपन्न करेंगे। राजकुमार सोनभद्र गुलबकावली के फूल ले आए इससे उनसे राजकुमारी नर्मदा का विवाह तय हुआ। नर्मदा अब तक सोनभद्र के दर्शन न कर सकी थी लेकिन उसके रूप, यौवन और पराक्रम की कथाएं सुनकर मन ही मन वह भी उसे चाहने लगी। विवाह होने में कुछ दिन शेष थे लेकिन नर्मदा से रहा ना गया उसने अपनी दासी जुहिला के हाथों प्रेम संदेश भेजने की सोची। जुहिला ने राजकुमारी से उसके वस्त्राभूषण मांगे और चल पड़ी राजकुमार से मिलने। सोनभद्र के पास पहुंची तो राजकुमार सोनभद्र उसे ही नर्मदा समझने की भूल कर बैठे। जुहिला की नीयत में भी खोट आ गयी। राजकुमार के प्रणय-निवेदन को वह ठुकरा ना सकी। इधर जब नर्मदा के सब्

क्यों भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु की छाती पर लात मारी

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क्यों भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु की छाती पर लात मारी भृगु नाम के एक महान ऋषि थे। उनकी प्रसिद्धि अभी भी अमर है। उन्होंने भगवान विष्णु की क्षमा की बड़ी प्रशंसा सुनी थी। उसने एक दिन सोचा, क्यों न जाकर उसकी माफी की जाँच की जाए? ऐसा सोचकर, वह भगवान विष्णु के पास अपनी माफी की जांच करने के लिए पहुंचा। जब वे पहुंचे तो भगवान विष्णु माँ लक्ष्मी की गोद में शेषनाग की शय्या पर आराम कर रहे थे। सभी लोकाचारों को छोड़कर, वह वहां पहुंचा, न तो देखा और न ही कुछ सुना और बिना कुछ बोले विष्णु की छाती पर चढ़ गया और जोरदार लात मारी। इस घटना को देखकर माँ लक्ष्मी हैरान रह गईं। छाती पर चोट लगते ही भगवान विष्णु उठ खड़े हुए, लड़खड़ाए और उनके निकट भृगु मुनि को पाकर उनके चरण स्पर्श किए और अपने सीने से लगा लिया। भृगु मुनि क्रोध से भर गए थे, भले ही वह कारण से बना हो, क्योंकि वे विष्णु की क्षमा करने के लिए पूछताछ करने आए थे। भगवान विष्णु उनके व्यवहार को देखकर आश्चर्यचकित थे। भगवान विष्णु ने उनके पैर पकड़ लिए और कहा - “मुनिवर, आपके पैर बहुत मुलायम हैं और मेरी छाती बहुत कठोर है। Munishresht! क्या आपके पैर में चोट नहीं थी? ”

कैसे शुरू हुई शुभ कावड़ यात्रा, कौन पहले कावड़िया थे? "

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सावन का महीना शुरू होते ही होते हैं और इसके साथ ही केसरिया कपड़े पहने शिवभक्तों के जत्थे गंगा का पवित्र जल शिवलिंग पर चढ़ाने निकल पड़ते हैं। ये जत्थे जिन्हें हम कावड़ियों के नाम से जानते हैं उत्तर भारत में सावन का महीना शुरू होते ही सड़कों पर दिखाई देने लगते हैं।) पिछले दो दशकों से कावड़ यात्रा की लोकप्रियता बढ़ी है और अब समाज का उच्च एवं शिक्षित वर्ग भी कावड यात्रा में शामिल होने लगा है। लेकिन आप क्या जानते हैं कावड़ यात्रा का इतिहास, सबसे पहले कावड़िया कौन थे। यह अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग मान्यता है आइए जानें विस्तार से ... 1. आश्रम पहले कावड़िया-कुछ विद्वानों का मानना ​​है कि सबसे पहले भगवान परशुराम ने उत्तर प्रदेश के बागपत के पास स्थित े पुरा महादेव'का कावड़ से गंगाजल लाकर जलाभिषेक किया था। परशुराम, इस प्रचीन शवलिंग का जलाभिषेक करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जी का जल ला रहे थे। आज भी इस परंपरा का पालन करते हुए सावन के महीने में गढ़मुक्तेश्वर से जल लाकर लाखों लोग 'पुरा महादेव' का जलाभिषेक करते हैं। गढ़मुक्तेश्वर का वर्तमान नाम ब्रजघाट है। 2.

Shani Dev Temple, Morena-शनि देव मंदिर, मुरैना

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विश्व का प्रसिद्ध रामायण कालीन भगवान शनिदेव मंदिर ऐंती जिला मुरैना में श्रद्धालुओं की आस्था का सैलाव देखने को मिलेगा। शनिचरा पर भगवान शनिदेव के आने की कथा त्रेता काल से जुड़ी बताई जाती है। सीताजी की खोज के दौरान हनुमान जी ने लंका दहन किया तब उन्होंने रावण की चंगुल से शनिदेव को मुक्त कराते हुए लंका से फेंक दिया था जो कि ऐंती के पास आकर गिरे और यहां उन्होंने तपस्या का शक्ति अर्जित की थी। तभी से यहां पर शनि देव का मेला हर साल लगता है। जिससे देश ही नहीं विदेश से भी भारी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। हनुमानजी ने कराया था रावण की कैद से मुक्त ऐसी मान्यता है कि ऐंती स्थित शनि पर्वत पर स्वयं शनिदेव ने तपस्या कर अपनी खोई हुई शक्तियों को प्राप्त किया था। शनिदेव को रावण ने बंधक बनाकर अपने पैरों का आसन बना लिया था। जब हनुमानजी ने लंका दहन का प्रयास किया तो कामयाब नहीं हुए। कारण खोजने पर पता चला कि शनिदेव लंका में मौजूद हैं। हनुमानजी ने अपने बुद्धि चातुर्य ने उन्हें मुक्त कराया और लंका छोडऩे को कहा। सालों से रावण के पैरों के नीचे पड़े रहने से शनिदेव दुर्बल हो गए थे। उन्होंने तुरंत लंका छोडऩे में अस

In this temple of Goddess, Prasad does not go on human blood, know the whole story.-इस देवी के मंदिर में प्रसाद नहीं बल्की चढ़ता हैं इंसानी खून, जानिए पूरी कहानी।​

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इस देवी के मंदिर में प्रसाद नहीं बल्की चढ़ता हैं इंसानी खून, जानिए पूरी कहानी।​ ​ ये तो हम सभी जानते हैं की पुराने समय में अंधविश्वास बहुत फैला था, पहले के जमाने में देवी या अन्य भगवान को प्रसन्न करने के लिए बलि प्रथा का चलन था। लेकिन अब इस प्रथा को समाप्त कर दिया गया हैं, ये अब कानूनी अपराध माना जाता हैं। लेकिन आपको बता दें की आज भी कई मंदिरों में इंसानी खून का भोग लगाया जाता हैं। आज आपको एक ऐसे ही मंदिर के बारें में बताने जा रहें हैं जहां आज भी इंसानी खून का प्रसाद चढ़ाया जाता हैं। से स्थान हैं बोरोदेवी मंदिर, यह मंदिर पश्चिम बंगाल में स्थित हैं। आप जानकर हैरान हो जायेंगे कि इस मंदिर में 500 वर्षों से इंसानी खून का भोग लगता आ रहा हैं। मान्यता हैं की इस मंदिर में बिना इंसानी खून का भोग लगाए आने वाले भक्त की पूजा सफल नहीं होती हैं। इस स्थान पर आज भी अष्टमी की रात्रि देवी काली की उपासना के दौरान इंसानी खून का भोग लगाया जाता हैं। 1831 में महाराजा हरेंद्र नारायण ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था और इसमें देवी काली की प्रतिमा की स्थापना कराई थी। इस मंदिर की वर्तमान प्रतिमा चावल से बनी हैं।

Why did Indra curse the Parijat tree not to bear fruit -क्यों दिया इंद्र ने पारिजात वृक्ष को फल न लगने का श्राप

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क्यों दिया इंद्र ने पारिजात वृक्ष को फल न लगने का श्राप  पारिजात वृक्ष को औषधिय गुणों की खान कहा जाता है, पारिजात वृक्ष से जन आस्था जुडी हुई है। इस वृक्ष की विशेषता यह है कि इसमें कलम नहीं लगती, इसी कारण यह वृक्ष दुर्लभ वृक्ष की श्रेणी में आता है। हिन्दू धर्म ग्रंथो में पारिजात के बारे में कई किवदंतिया प्रचलित हैं। पारिजात वृक्ष से जुड़ी पौराणिक कथाएं बहुती ही रोचक हैं आइए जानते हैं इनके बारे में..... एक मान्यता के अनुसार परिजात वृक्ष की उत्पत्ति समुंद्र मंथन से हुई थी। जिसे इन्द्र ने अपनी वाटिका में रोप दिया था। हरिवंश पुराण के अनुसार पारिजात के अदभुद फूलों को पाकर सत्यभामा ने भगवान कृष्ण से जिद की कि पारिजात वृक्ष को स्वर्ग से लाकर उनकी वाटिका में रोपित किया जाए। श्री कृष्ण ने पारिजात वृक्ष लाने के लिए नारद मुनि को स्वर्ग लोक भेजा मगर इन्द्र ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया जिस पर कृष्ण ने स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर दिया और पारिजात प्राप्त कर लिया। पारिजात छीने जाने से रूष्ट इन्द्र ने इस वृक्ष पर कभी न फल आने का श्राप दिया। पारिजात वृक्ष का उल्लेख भगवत गीता में भी मिलता है। पारिजात वृक्ष क