The legend of the end of Tripurasura.-त्रिपुरासुर के अंत की कथा।


हर कालचक्र में भगवान शिव को त्रिपुरासुर का अंत करना होता है।
तीन असुर भगवान शिव की भक्ति करते थे, अतः भगवान शिव उनकी रक्षा करते थे। उन्होंने भगवान द्वारा रक्षा का वर प्राप्त कर लिया, और उन्हें बताया गया की वे रेगिस्तानी (उर्वर कृषि योग्य भूमि विहीन पहाड़ियों ) पर रहें और जब उनका पाप बढ़ेगा तो , कलियुग में जब असत्य सत्य पर भारी पड़ेगा, तो कलियुग शुरू होने पर कलियुग के पहले चरण में ही भगवान स्वयं उनका विनाश करने आएंगे।
लेकिन लोगों की भक्ति सच्ची नहीं थी , वे बुरे काम करके शिव की पूजा कर लेते तो भोलेनाथ उनका विनाश नहीं कर पाते। ये सृष्टि के नियम के विपरीत था, ये धर्म का दुरूपयोग था। लेकिन महादेव अपने शरणागत भक्तों को कभी मार नहीं सकते थे, तब भगवान विष्णु ने मार्ग निकाला, और वही किया जो उन्हें हर कल चक्र में करना पड़ता है, उन्होंने एक मायावी सा मन को बातों से वश में कर लेने वाला पुरुष का निर्माण किया और अवतार लिया, उन्होंने महारानी माया के गर्भ में अत्यंत विशेष मुहूर्त में जन्म लेकर, पटना देश में सन्यासी बनकर आये, वट वृक्ष के नीचे तप किया और बोध प्राप्त करने के कारण लोग उन्हें बुद्ध नाम से जानने लगे, और नए धर्म की स्थापना की। लोग उनके शिष्य बने और उन्होंने लोगों को एक नए अच्छे पथ के बारे में लोगों को बताया, लोग उनके शिष्यों की मायावी बातोँ से चकित थे, अपने जीवन में बदलावों को लाकर वे प्रसन्न थे। वे विश्वविद्यालय गए और वहां चल रहे , पुरातन ज्ञान की पढाई को बंद करने को समझाया। लोगों को बताया जा रहा था, ये अनुष्ठान केवल ब्राह्मणों का पाखंड है, जीवन में सुख भोगो -दुःख कम करो, ज्ञान , समृद्धि, शौर्य के पीछे मत भागो जब जीवन का आनंद ही नहीं ले पाये तो लाभ क्या, अब बात राजाओं तक पहुंची और राजा भी उनकी शरण में आने लगे। राजाओं को बताया जाने लगा एक नया धर्म आया है जिससे हम प्रसन्न है, कुछ राजा ने सवाल जवाब किया और फिर अपना पुराना मार्ग छोड़ नये जीवन का पालन करने लगे। राजा स्वयं आश्रम आये और उनके मत को स्वीकार किया। नारद खुद भी उनका मत स्वीकार करके राजा के पास गए आर उन्हें इसके बारे में बताया, विद्युन्मति खुद ने आश्रम चलकर नये धर्म को स्वीकार किया, बाद में तारकाक्ष और वीर्यवान ने भी यह धर्म स्वीकार किया
अब लोग शिव की आराधना नहीं कर रहे थे, और वर से मुक्त थे। अब लोगों में ज्ञान नहीं बचा, साहस नहीं बचा, जो कर्म करके एक समाज व्यवस्था को संचालित करना था उसे छोड़ भौतिक रूप से सबको सुख दायक लगने वाला मार्ग लोगों ने अपना लिया था। और अब लोगों के द्वारा की जा रही अत्याचार, अधर्म, और समाज में भौतिक सुख के लिये कुछ भी करना इनका दंड देना संभव हो पाया। अब तो अधर्म और बढ़ गया और चरम सीमा को पार कर गया, लोग अब और अपने मनमर्ज़ी से काम करते हुए, दूसरों को सताने, अत्याचार और ढोंग करने लगे। अब उनकी रक्षा के लिये कोई नहीं था। अंततः कई वर्षों की प्रतीक्षा के बाद वह समय योग आया, और अब असुर राजा के अंत का मुहूर्त आया। अब तीनों अधर्म की आसुरी शक्तियां एक हो चुके थे, भगवान शंकर, स्वयं सूर्योदय का प्रकाश बनकर आये , चारों वेद अश्व बनकर और ज्ञान प्रकाश उनका रथ बनकर , भगवान त्रिलोकनाथ स्वयं मंदार पर्वत को अपना धनुष बनाकर और सबसे विध्वंसक- पशुपति अस्त्र चला दिया, और उनकी मुस्कान मात्र से ही तीनों महल, मात्र एक पल में, भस्म हो गए।
फिर सनातन धर्म का भगवन की कृपा से पुनः प्रचार प्रसार हुआ और दब कर विलुप्त हो चूका सनातन धर्म वापस लौट आया और प्रभु भगवान त्रिपुरांतक कहलाये।
शिवजी की सेना ने पुनः धर्म की स्थापना की और त्रिपुरा की त्रिपुरनगरि के त्रिपुरासुर का अंत हुआ।
जय हो प्रभु त्रिलोकनाथ त्रिपुरान्तक की।

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