काठगढ़ महादेव, दुनिया का एकमात्र अर्धनारीश्वर मंदिर-Kathgarh Mahadev, world's only Ardhanarishwar temple

मंदिर में स्थापित शिवलिंग स्वयंभू  है। इस शिव मंदिर में विशाल शिवलिंग दो भागों में बंटा हुआ है, जिसे मां पार्वती और भगवान शिव के रूपों में माना जाता है। खास बात यह है कि ग्रहों और नक्षत्रों के अनुसार इनके दोनों भागों के बीच का अंतर घटता-बढ़ता रहता है। माता पार्वती और  सांप भी स्वयंभू प्रकट हुए हैं…

देवभूमि हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के इंदौरा उपमंडल में स्थित काठगढ़ महादेव मंदिर लोगों की आस्था का केंद्र है। इस मंदिर के साथ कई पौराणिक किवदंतियां जुड़ी हुई है। लोगों के कथनानुसार मंदिर में स्थापित शिवलिंग स्वयंभू प्रकट है। इस शिव मंदिर में विशाल शिवलिंग दो भागों में बंटा हुआ है, जिसे मां पार्वती और भगवान शिव के रूपों में माना जाता है। खास बात यह है कि ग्रहों और नक्षत्रों के अनुसार इनके दोनों भागों के बीच का अंतर घटता-बढ़ता रहता है। माता पार्वती और उनका प्रिय सांप भी स्वयं-भू प्रकट है। गर्मी के मौसम में यह अलग हो जाते हैं और सर्दियों में आपस में जुड़ जाते हैं। इसी रहस्य के कारण यह मंदिर लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है। काठगढ़ मंदिर के महत्व के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि व्यास नदी के किनारे स्थित इस मंदिर के बारे में शिव पुराण में भी व्याख्या मिलती है। जब श्री ब्रह्मा और श्री विष्णु में आपसी बड़प्पन के कारण युद्ध हुआ था तो उन्हें शांत करने के लिए भोले नाथ ने अग्नि तुल्य स्तंभ का रूप धारण किया था। युद्ध के दौरान दोनों श्री ब्रह्मा और श्री विष्णु ने एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए महेश्वर और पाशुपात अस्त्र का प्रयोग करने के लिए प्रयासरत थे। इससे तीनों लोकों में नाश की आशंका होने लगी और भगवान शिव शंकर महाअग्नि तुल्य स्तंभ के रूप में श्री ब्रह्मा और श्री विष्णु के बीच में प्रकट हो गए और युद्ध शांत हो गया। काठगढ़ नामक यह स्थान महाराजा दशरथ का भी पूजा स्थल रहा है। ऐसा कहा जाता है कि त्रेता युग में जब महाराज दशरथ की शादी हुई थी तो उनकी बारात पानी पीने के लिए यहां रुकी थी और यहां एक कुएं का निर्माण किया गया था। जोकि आज भी यहां स्थापित हैं। जब भी भरत व शत्रुघ्न अपने ननिहाल कैकेय देश वर्तमान (कश्मीर) जाते थे तो व्यास नदी के पवित्र जल से स्नान करके राजपुरोहित व मंत्रियों सहित यहां स्थापित शिवलिंग की पूजा अर्चना कर आगे बढ़ते थे। एक किवदंती में कहा गया है कि सिकंदर  ने भी विश्व विजयी अपना अभियान यहीं आकर रोका था। 326 ई पूर्व जब सिकंदर विश्वविजेता बनकर अपने अंतिम शिविर के दौरान व्यास नदी के कारण यहां ठहरा था तो यहां स्थापित शिवलिंग की दैवीय शक्ति के कारण उसका विजयी अभियान अचानक रुक गया। भोले नाथ के इस अलौकिक स्वरूप को देखते हुए सिकंदर ने यहां पूजा अर्चना भी की थी। यहां तक कि यूनानी सभ्यता की पहचान छोड़ते हुए शिवलिंग के चारों ओर अष्टकोणिय चबूतरों का निर्माण करवाया था। बताया जाता है कि इस मंदिर ने महाराजा रणजीत सिंह के कार्यकाल में सबसे ज्यादा प्रसिद्धि प्राप्त की थी। क्योंकि इससे पहले यहां पर मंदिर का निर्माण नहीं था और भगवान भोले शंकर खुले आसमान के नीचे बिना छत के रह रहे थे। जब इस बात का पता महाराजा रणजीत सिंह को चला तो उन्होंने यहां मंदिर का निर्माण करवाया और शिवलिंग की इस महिमा का गुणगान भी चारों ओर करवाया। समूचे भारतवर्ष से श्रद्धालु यहां सदाशिव महादेव के दर्शन के लिए आते हैं। इस मंदिर में हिमाचल व पंजाब दोनों तरफ से पहुंचा सकता है। हिमचाल की तरफ  से जाने के लिए कांगड़ा से नूरपुर राजमार्ग पर जाना पड़ता है। इसके बाद इंदौरा जाना पड़ता है।
 
 

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