जानिए, गायत्री मंत्र के हर शब्द का क्या अर्थ है?-Know, what is the meaning of every word of Gayatri Mantra?




ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो 
देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।

मंत्र का संपूर्ण भावार्थ

ऊँ
गायत्री का क्रम ऊँ से आरम्भ होता है, ऊँके ऋषि ब्रह्मा हैं। ऊँ का अकार, उकार, मकारात्मक स्वरूप है। उसके अनुसार ऊँ को सारी सृष्टि का मूल माना जाता है। ऊँ से ही सारी सृष्टि का विकास होता है। यह एक स्वतन्त्र विषय है। यहां केवल गायत्री पर ही कुछ कहते हैं।

भूः
सबसे पहले भूः शब्द आ रहा है, क्योंकि सामने वाली वस्तु को लांघ कर कोई नई बात नहीं कही जा सकती, सामने वाली चीज भूः से आरम्भ की जा रही है। वास्तविक आरम्भ भूः भुवः स्वः महः जनः तपः सत्यम् से है। 

सत्यम् से भूः तक की स्थिति एक सूत्र से बंधी है किन्तु हमारी दृष्टि सत्यम् पर नहीं जा सकती। सामने की भूः को हम समझ सकते हैं इसलिए भूः से ही इसका आरम्भ करते हैं। दूसरी वैदिक रहस्य की बात है कि देवताओं की गणना में अग्निर्वै देवानां अवमः विष्णुः परमः यह कहा जाता है। 

सबसे पहले अग्नि है, सबके अन्त में तैतीसवें विष्णु हैं। अग्नि शब्द परोक्ष भाषा का है। यह अग्रि (अर्थात् सबसे पहला) था जिसे बाद में अग्नि कहने लग गए। अग्नि का सम्बंध भूः से ही है और इसी अग्नि की सारी व्याप्ति हो रही हैं, इसलिए प्रथम दृष्टि भूः पर ही जानी चाहिए। भूः का निर्माण कैसे हो रहा है? पृथ्वी तो पञ्च महाभूतों में सबसे आखिरी महाभूत है।

भुवः
पहले पञ्च महाभूतों का कहां किस रूप में क्या होता है जिससे पृथ्वी बन रही है? उसका सारा श्रेय भुवः को होता है। भुवः नाम का जो अन्तरिक्ष है वह सोममय समुद्र से भरा हुआ है, अनवरत सोम की वृष्टि वहां से पृथ्वी पर होती रहती है किन्तु स्मरण रहे कि अकेले सोम की वृष्टि नहीं है। 

भूः भुवः स्वः ये तीनों सूत्र जुड़े हुए हैं। स्वः में आदित्य है। वहां अमृत और मृत्यु दोनों तत्त्व मौजूद हैं।
अमृत और मृत्यु दोनों तत्त्वों को साथ लेकर आदित्य की गति बताई गई है। उसमें भी आदित्य का ऊर्ध्व भाग आदित्य मंडल है और वह आदित्य बारह मंडलों में विभक्त है। 

बारहवें मंडल पर विष्णु विराजमान है जो आदित्य मंडल का ऊपरी अर्ध भाग है उसकी विवेचना वेद में अमृत रूप में आई है। नीचे का अर्ध भाग जो पृथ्वी से जुड़ा आ रहा है वह मृत्युमय है।

मृत्यु में अमृत का आधान हो रहा है। इस तरह से अमृत मृत्यु दोनों से जुड़ा हुआ तत्त्व जो सोम रूप में बनकर पृथ्वी पर उतर रहा है उसके बीच में अन्तरिक्ष ही सारा समुद्र-घर बना हुआ है। इस अन्तरिक्ष में हमारी पृथ्वी जैसे अनन्त लोक विराजमान हैं जो सूर्य की ज्योति से ढके रहते हैं और सूर्यास्त के बाद तारों के रूप में खिल पड़ते हैं। उन तारों के स्थान में बैठकर पृथ्वी को देखें तो यह पृथ्वी भी एक तारे की तरह चमकती दिखाई देगी।

स्वः
भूः  से चला हुआ अग्नि भुवः को पार करके स्वः में जा रहा है। स्वः को संस्कृत में स्वर्ग वाची बताया गया है। स्वः प्रत्यक्ष है, आदित्य से सम्बद्ध है जिसके एक दूसरे से बड़े 12 मंडल रूप विभाग हैं। इसका पौराणिक विवेचन जब देखते हैं तब इसका स्पष्टीकरण बहुत विशद रूप में होता है। 

वहां कहा गया है कि सूर्य के साथ हजारों सर्प, हजारों पक्षिगण हजारों असुर, हजारों देवगण उदित हो रहे हैं। वे सिर्फ देखने के लिए उदित नहीं हो रहे हैं, बल्कि उन सबका क्रियामय कर्म चल रहा है। इधर अमृतभाव भी आ रहा है उधर विषभाव भी आ रहा है। 

सम्मिश्रित होकर पृथ्वी तक आ रहे हैं और यहां नीचे समुद्र में उनका मन्थन हो रहा है। मन्थन द्वारा जो किनारे पर पांक आ रहा है- वायु उसमें बन्द होकर बूंदबूंद, पांक-कीचड़ सिक्ता सूख कर पृथ्वी का रूप बनता चला जा रहा है।

गायत्री मन्त्र में कहा है भूः भुवः स्वः। स्वः से आगे के व्याहृतियों के नाम क्यों नहीं ले रहे हैं। ये तो सात हैं, स्वः पर ही क्यों रुके हैं? इसलिए कि आगे के व्याहृतियों के व्याहृती के रूप में बोलने के लिए स्वरूप स्पष्टीकरण नहीं होता। 

व्याख्या जब तक नहीं आ जाए तब तक स्पष्ट नहीं हो सकता कि क्या महः है, क्या तपः है, क्या सत्यम् है? सत्य बोलने से क्या समझ में आएगा, इसलिए गायत्री उन सबका परिचय दे रही है।

तत्
तत् शब्द को सम्बंधपरक माना गया है। सम्बंध तो अनेक प्रकार के होते हैं। पञ्चमी विभक्ति से जुड़ा हुआ तस्मात् का भी तत् है। भूः भुवः स्वः, किसी तत् यानी स्वः से ऊपर का विचार हो रहा है। स्वः का निर्माण किससे हो रहा है। 

स्वः जितना भी है, वेद-विज्ञान के विचार के अनुसार जैसे हम हैं वैसे स्वः है। यहां पर जो अवधि सौ वर्ष की है वहां वही अवधि काल क्रम से हजार वर्ष की है। यद्यपि पुरुष मात्र शतायु होता है, देवता भी शतायु ही है किन्तु उनके सौ वर्ष हमारे हजार वर्ष होते हैं। 

स्वः की इस तरह की विवेचना पुराणों में खूब आती है लेकिन महाप्रलय में स्वः की भी समाप्ति तो हो ही जाती है। जनः नाम के परमेष्ठी मण्डल से स्वः का उदय हुआ, उसमें ही लीनभाव भी बताया गया। स्वः नाम का तत्त्व भी लीन होगा, वह भी चिरस्थायी नहीं है।  

तत्सवितुर्वरेण्यं
उससे ऊपर सविता है। सूर्य को जो सविता नाम दिया जाता है वह प्रतिबिम्बात्मक रूप में ही दिया जाता है क्योंकि सविता नाम वैदिक परिभाषा के क्रम में परमेष्ठी मंडल के पांच उपग्रहों में गिनाया गया है। शतपथ ब्राह्मण में एक ग्रह अतिग्रहभाव की विवेचना आई है, ग्रह-उपग्रह (अतिग्रह)। 

ग्रह कहते हैं प्रधान को, उपग्रह कहते हैं गौण को। तो वहां पर सत्यलोक से चली हुई जो ज्ञानमयी शक्ति है उस ज्ञानमयी धारा का परमेष्ठी मण्डल की सोममयी धारा से सम्मिश्रण होता है और यह सम्मिश्रण युगलतत्त्व में जुड़ करके अद्वैत भाव ले लेता है।    

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