जानिए क्या हैं 84 लाख योनियां-Know what are 84 lakhs

की मान्यता के अनुसार जीवात्मा योनियों में भटकने के बाद पाती है। 84 लाख योनियां निम्नानुसार मानी गई हैं।

* पेड़-पौधे - 30 लाख

* कीड़े-मकौड़े - 27 लाख

* पक्षी - 14 लाख

* पानी के जीव-जंतु - 9 लाख

* देवता, मनुष्य, पशु - 4 लाख

योनियां क्या हैं ?

जैसा कि सभी को पता है कि मादा के जिस अंग से जीवात्मा का जन्म होता है, उसे हम योनि कहते हैं। इस तरह पशु योनि, पक्षी योनि, कीट योनि, सर्प योनि, मनुष्य योनि आदि। उक्त योनियों में कई प्रकार के उप-प्रकार भी होते हैं। योनियां जरूरी नहीं कि 84 लाख ही हों। वक्त से साथ अन्य तरह के जीव-जंतु भी उत्पन्न हुए हैं। आधुनिक विज्ञान के अनुसार अमीबा से लेकर मानव तक की यात्रा में लगभग 1 करोड़ 04 लाख योनियां मानी गई हैं। ब्रिटिश वैज्ञानिक राबर्ट एम मे के अनुसार दुनिया में 87 लाख प्रजातियां हैं। उनका अनुमान है कि कीट-पतंगे, पशु-पक्षी, पौधा-पादप, जलचर-थलचर सब मिलाकर जीव की 87 लाख प्रजातियां हैं। गिनती का थोड़ा-बहुत अंतर है। लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि आज से हजारों वर्ष पूर्व ऋषि-मुनियों ने बगैर किसी साधन और आधुनिक तकनीक के यह जान लिया था कि योनियां 84 लाख के लगभग हैं। 


हिन्दू धर्म के अनुसार विकास का सिद्धांत


गर्भविज्ञान के अनुसार क्रम विकास को देखने पर मनुष्य जीव सबसे पहले एक बिंदु रूप होता है, जैसे कि समुद्र के एककोशीय जीव। वही एकको‍शीय जीव बाद में बहुकोशीय जीवों में परिवर्तित होकर क्रम विकास के तहत मनुष्य शरीर धारण करते हैं। स्त्री के गर्भावस्था का अध्ययन करने वालों के अनुसार जंतुरूप जीव ही स्वेदज, जरायुज, अंडज और उद्भीज जीवों में परिवर्तित होकर मनुष्य रूप धारण करते हैं। मनुष्य योनि में सामान्यत: जीव 9 माह और 9 दिनों के विकास के बाद जन्म लेने वाला बालक गर्भावस्था में उन सभी शरीर के आकार को धारण करता है, जो इस सृष्टि में पाए जाते हैं। गर्भ में बालक बिंदु रूप से शुरू होकर अंत में मनुष्य का बालक बन जाता है अर्थात वह 83 प्रकार से खुद को बदलता है। बच्चा जब जन्म लेता है, तो पहले वह पीठ के बल पड़ा रहता है अर्थात किसी पृष्ठवंशीय जंतु की तरह। बाद में वह छाती के बल सोता है, फिर वह अपनी गर्दन वैसे ही ऊपर उठाता है, जैसे कोई सर्प या सरीसृप जीव उठाता है। तब वह धीरे-धीरे रेंगना शुरू करता है, फिर चौपायों की तरह घुटने के बल चलने लगता है। अंत में वह संतुलन बनाते हुए मनुष्य की तरह चलता है। भय, आक्रामकता, चिल्लाना, अपने नाखूनों से खरोंचना, ईर्ष्या, क्रोध, रोना, चीखना आदि क्रियाएं सभी पशुओं की हैं, जो मनुष्य में स्वत: ही विद्यमान रहती हैं। यह सब उसे क्रम विकास में प्राप्त होता है। 


 हिन्दू धर्मानुसार सृष्टि में जीवन का विकास क्रमिक रूप से हुआ है


श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार..सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तयावृक्षान्‌ सरीसृपपशून्‌ खगदंशमत्स्यान्‌।तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधायब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥ (11 -9 -28 श्रीमद्भागवतपुराण) अर्थात विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुई और इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ, परंतु उससे उस चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हुई अत: मनुष्य का निर्माण हुआ, जो उस मूल तत्व ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकता था


ऐसे जन्मा था मांडव -योग के 84 आसन


योग के 84 आसन भी इसी क्रम विकास से ही प्रेरित हैं। एक बच्चा वह सभी आसन करता रहता है, जो कि योग में बताए जाते हैं। उक्त आसन करने रहने से किसी भी प्रकार का रोग और शोक नहीं होता। वृक्षासन से लेकर वृश्चिक आसन तक कई पशुवत आसन हैं। मत्स्यासन, सर्पासन, बकासन, कुर्मासन, वृश्चिक, वृक्षासन, ताड़ासन आदि अधिकतर पशुवत आसन ही है।

Comments

Popular posts from this blog

Mata Bhimeshwari Devi Temple at Beri-बेरी में माता भीमेश्वरी देवी मंदिर

Baglamukhi Temple- बगलामुखी मंदिर कांगड़ा

तारा देवी मंदिर, हिमाचल प्रदेश-Tara Devi Temple, Himachal Pradesh